सुरण्या अय्यर
सुरन्या अय्यर एक वकील और माँ हैं जिन्होंने www.saveyourchildren.in वेबसाइट की स्थापना की है जिसमें सरकार और एनजीओ की बच्चों से संबंधित नीतियों का विश्लेषण किया गया है।
क्या आप जानते हैं कि हमारे किशोर न्याय अधिनियम, 2015 (जेजे ऐक्ट) के तहत किसी भी बच्चे के माता-पिता को बाल कल्याण समिति (“सीडब्ल्यूसी”) नामक पैनल “अयोग्य” घोषित कर सकती है और बच्चे को अनिवार्य रूप से सरकारी संरक्षण में ले जा सकती है? क्या आप जानते हैं कि ये व्यवस्था नवजात शिशुओं और छोटे-से-छोटे बच्चों पर भी लागू किया गया है? सरकारी संरक्षण में लिए गए ऐसे बच्चों को ज़बरदस्ती 18 साल की उम्र तक फॉस्टर केयर या सरकारी संस्थानों में रखा जा सकता है। सीडब्ल्यूसी ऐसे बच्चों को अपने मां-बाप से मुलाकात तक करने से रोक सकती है।
यह सीडब्ल्यूसी है क्या भला? असल में यह जनता के बीच से चुने गए पांच सदस्यों का एक पैनल होता है। इस पैनल को अदालत की शक्तियां दी गई हैं मगर यह अदालती पैमानों का पालन नहीं करती। यह फैसले सुना सकती है मगर इसमें कोई न्यायाधीश नहीं होता। सेवानिवृत्त न्यायाधीश या वकील इसके सदस्य हो सकते हैं मगर उनका चयन अनिवार्य नहीं है। एकमात्र शर्त यह है कि उसके सदस्य बच्चों से संबंधित किसी क्षेत्र से हों – मसलन अध्यापक, बाल चिकित्सक, मनोवैज्ञानिक या “सोशियोलॉजिस्ट” जैसे पेशेवर, जिनके पास तफ्तीशी, फोरेंसिक या कानूनी काबीलियत नहीं है। इस व्यवस्था के तहत कोई भी जिला स्तरीय सरकारी अधिकारी या कोई भी एनजीओ बच्चों को उसके मां-बाप से अलग करा सकता है। इसके लिए उन्हें सिर्फ सीडब्ल्यूसी की सहमति की जरूरत होगी।
अब आप देख सकते हैं कि जेजे ऐक्ट निर्दोष परिवारों और उनके बच्चों को किस तरह से जोखिम में डाल देती है। बच्चों को स्थायी रूप से उनके माता-पिता से अलग करने की शक्ति मृत्यु दंड के बाद सरकार को दी गई शायद सबसे भयानक शक्ति है। इस तरह की कठोर शक्तियों को सार्वजनिक जवाबदेही के सबसे सख्त मानकों के अधीन किया जाना चाहिए था। और इन्हे सार्वजनिक प्राधिकरण की कवायद से संबंधित कानूनों में प्रशिक्षित पेशेवरों द्वारा प्रयोग करवाना चाहिए था जो पूरी तरह से जानते हों कि किस तरह से इन शक्तियों का दुरुपयोग किया जा सकता है।
इस दृष्टि से हमारी फॉस्टर केयर व्यवस्था बहुत सारे पश्चिमी देशों के फॉस्टर केयर कानूनों से भी ज्यादा अग्रसर है। ज्यादातर पश्चिमी देशों में बगैर न्यायाधीश के आादेश के सरकारी संस्थाएं बच्चे को अपने मां-बाप से लेकर अपने संरक्षण में नहीं ले सकती हैं।
केंद्रीय मंत्रालय सभी राज्यों से मॉडल गाईडलाइन्स फॉर फॉस्टर केयर, 2016 (“फॉस्टर केयर गाईडलाइन्स”) अपनाने की वकालत दे रही है। इन गाईडलाइन्स की भाषा को पढ़ने से यह साफ है कि इसका दायरा सिर्फ लावारिसों और छोड़े हुए बच्चों तक सीमित नहीं हैए बल्कि अपने घर-परिवार में रह रहे बच्चे भी इस कानून के मुख्य निशानों में हैं। फॉस्टर केयर गाईडलाइन 2.9(अ) में कहा गया है कि फॉस्टर प्लेसमेंट के लिए जैविक माता-पिता की सहमति अनिवार्य नहीं है और इसका दारोमदार केवल “जरूरत” और “मौके के हिसाब” से तय किया जाएगा। गाईडलाइन्स में फॉस्टर पेरेन्ट्स की “चुनौतियों” का जिक्र करते हुए कहा गया है कि “अपने परिवार से अलग होना किसी भी बच्चे के लिए सबसे उथल-पुथल भरा अनुभव होता है” (परिशिष्ट जी पहला बिंदु) । इसी के बिंदु 2.2.4 में बताया गया है कि बच्चे को उसकी “पैदाइशी परिवार से अलग होने” के बारे में “काउंसलिंग” दिया जाना चाहिए। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि ये व्यवस्था परिवार में पल रहे बच्चों को अपने जीते-जागते मां-बाप से छीनने की शक्तियां सरकार को दे रही है।
वैसे यह दिखाने के लिए नियमावली में पूरी सावधानी बरती गई है कि परिवार के साथ बच्चे के पुनर्मिलन को प्राथमिकता दी जाएगी; बच्चे को उसके पैदाइशी परिवार के पास लौटाने के लिए हर संभव प्रयास किया जाएगा; परिवारों की ‘‘सक्षमता’’ वगैरह के लिए पूरा प्रयास किया जाएगा। मगर ऐसा शब्दजाल तो पश्चिमी बाल सुरक्षा व्यवस्थाओं में भी खूब दिखाई देता है। ऐसी सारी लफ्फाजी के बावजूद पश्चिमी देशों में यही व्यवस्था लागू करके बिलकुल सामान्य परिवारों के बच्चों को निहायत बेतुके आधारों पर उनके माता-पिता से छीन लिया जाता है।
ये समस्याऐं और अधिक चिंताजनक होती हैं जब आप इस बात का ध्यान रखते हैं कि हमारे फास्टर केयर कानूनों के तहत बच्चों को जबरन उनके मां-बाप से अलग करने के लिए ये जरूरी नहीं है कि बच्चे गंभीर उत्पीड़न या उपेक्षा के शिकार हों। इसके लिए माता-पिता की “उपयुक्तता” और “जुबानी उत्पीड़न” (“वर्बल अब्यूस”) मसलन डांट-डपट, एवं ”भावनात्मक उत्पीड़न“ (“इमोशनल अब्यूज़”) जैसी वजहों का भी सहारा लिया जा सकता है। ये अस्पष्ट और व्यापक रूप से मसौदा कानून निर्दोष परिवारों के दुरुपयोग और उत्पीड़न के लिए बहुत अधिक गुंजाइश छोड़ते हैं।
*******
मैंने इस बात पर कई जगह मुददा उठाया है कि बाल सुरक्षा संबंधी भारतीय कानूनों में सरकार और एनजीओ कार्यकर्ताओं को बच्चों को उनके माता-पिता से अलग कर देने की बहुत व्यापक शक्तियां दे दी गई हैं।
मॉडल गाईडलाइन्स फॉर फॉस्टर केयर, 2016 (“फॉस्टर केयर गाईडलाइन्स”) में बच्चों से संबंधित मामलों में तफ्तीश की जिम्मेदारी पुलिस के हाथ से लेकर एनजीओ कार्यकर्ताओं, समाजशास्त्रियों या मनोवैज्ञानिकों को सौंप दी गई है। इसके लिए किसी फॉरेंसिक, तफ्तीशी या कानूनी काबीलियत की जरूरत का जिक्र भी कहीं नहीं किया गया है। यहां तक कि यह जिम्मेदारी किसी सरकारी अधिकारी को भी नहीं दी गई। ऐसे में यह व्यवस्था सार्वजनिक संस्थानों के मानकों के हिसाब से जवाबदेह नहीं रहती।
एनजीओ के कार्यकर्ताओं को पुलिसिया पहरेदारी और बरामदगी के विस्तृत अधिकार दे दिए गए हैं। किसी भी घर/परिवार में घुस कर उसके बच्चों को अलग करने का अधिकार हासिल करने के लिए उन्हें सिर्फ जिला बाल सुरक्षा ईकाई (“डीसीपीयू”) के पास अपना पंजीकरण भर कराना काफी होगा। इसके बाद, सरकारी अधिकारियों को लेकर बनाई गई डीसीपीयू को “आशंका आकलन” (“वल्नरेबिलिटी मैपिंग”) (नियम 2.2.1, फॉस्टर केयर गाईडलाइन्स) के लिए बच्चों पर निगरानी, बच्चों के डेटाबेस तैयार करने और बच्चों तथा उनके परिवारों को “ऐट रिस्क” यानी “जोखिमग्रस्त” चिन्हित करने का अधिकार दिया गया है (जेजे निमावली, बिंदु 85(1)(vii))। गौर करें कि ये सारी शक्तियां देते हुए कार्रवाई करने के लिए अदालत से तलाशी अथवा गिरफ्तारी वॉरंट हासिल करने की जरूरत को भी नजरअंदाज कर दिया गया है।
जेजे नियमावली के फार्म 43 (नियम 69(एच)) में प्रावधान किया गया है कि जांच के दौरान केस वर्कर बच्चे और उसके परिवार की “धार्मिक गतिविधियों” पर तहक़ीक़ात करेंगे। फॉस्टर केयर कार्रवाई में जांच के दौरान बच्चे के बारे में केस वर्कर्स को फॉर्म 22 (नियम 19(8) जेजे नियमावली) भरना होगा जिसमें “धर्म के प्रति परिवार के रवैये” के बारे में भी बताना होगा। फार्म 43 में दिए गए प्रश्नों में ये भी पूछा गया है कि बच्चे ने किस प्रकार के “एसोसिएशन/जुड़ाव” और किन “समूहों” में हिस्सेदारी दिखाई है; किसी धार्मिक समूह के साथ उसके संबंध रहे हैं या नहीं; उस समूह का “रवैया” क्या रहा है; वह समूह “सामाजिक नियमों का सम्मान करता है या नहीं”; “कायदे-कानूनों के उल्लंघन का रुझान रखता है या नहीं” अथवा “नियमों की अवहेलना का आदी” तो नहीं है। लिहाज़ा बाल संरक्षण जांच की आड़ में परिवारों में अन्यायपूर्ण घुसपैठ और निर्दोष परिवारों का उत्पीड़न का बड़ा खतरा है ।
मजे की बात यह है कि यह सारी कार्रवाई सिर्फ सुनी-सुनाई बातों पर आधारित होगी, जैसे कि पड़ोसियों और अध्यापकों की राय पर, उसका काई ठोस आधार नहीं होगा। जेजे नियमावली के फार्म 43 और 22 में केस वर्कर्स को सिर्फ टिक मार्क के सहारे ये बताना होगा कि परिवार के सदस्यों के बीच संबंध “सहृदयतापूर्ण” हैं या “सहृदयतापूर्ण नहीं” हैं; बच्चे के प्रति माता-पिता की देखभाल “अतिसंरक्षणवादी”, “प्रेमपूर्ण”, “प्रेम-रहित” या “अस्वीकृति” की श्रेणी में तो नहीं आती (मानो ये सारी बातें बच्चों को उनके परिवारों से स्थाई रूप से अलग कर देने का पर्याप्त आधार हों); और, क्या बच्चे का “उत्पीड़न” किया जा रहा था या उसके साथ “दुर्व्यवहार” किया जा रहा था?
अगर आपको “उत्पीड़न” और “दुर्व्यवहार” जैसे शब्दों को सुनकर परिवार के भीतर यौन अपराधों या हिंसा जैसे खयाल आ रहे हों तो अपनी कल्पनाओं पर जरा लगाम लगाएं। यहां “उत्पीड़न” की श्रेणी में “जबानी उत्पीड़न” (“वर्बल अब्यूस”) मसलन डांट-डपट, और फॉस्टर केयर गाईडलाइन्स के नियम संख्या 7 (सी(3)) के तहत “इमोशनल अब्यूज़”, यानी “भावनात्मक उत्पीड़न”, भी शामिल है। पश्चिम में तहलका मचा रही कुख्यात बाल सुरक्षा संस्थाओं ने सबसे ज्यादा अन्यायपूर्ण फैसले इस “इमोशनल अब्यूज़” के नाम पर ही लिये हैं।
अब मैं इस ‘‘इमोशनल अब्यूज़’’ के बारे में आपको कुछ बताती हूँ। इस बात से किसी को इनकार नहीं है कि इस बारे में वाजिब सवाल उठाए जा सकते हैं कि लालन-पालन के कुछ तरीके बच्चे के भावनात्मक कल्याण के लिये उचित हैं या नहीं। लेकिन यह वाजिब विचार बाल अधिकारों के क्षेत्र में एक विकृत सिद्धांत के स्तर पर ले जाया गया है जहां बच्चों को उनके पैदाइशी पारिवार से निकालने का कठोर कदम भावनात्मक नुकसान के बहुत कमजोर दावों पर लिया जा रहा है।
पश्चिमी देशों में “भावी भावनात्मक हानि की आशंका” (“रिस्क ऑफ फ्यूचर इमोशनल हार्म”) का हवाला देकर बच्चों को उनके माता-पिता से छीन लिया जाता है चाहे बच्चे के साथ माता-पिता के द्वारा उत्पीड़न या उपेक्षा कभी नहीं हुआ हो। इंगलैंड में “रिस्क ऑफ फ्यूचर इमोशनल हार्म” मां-बाप के इंटेलीजेंस कोशेंट (आईक्यू) या व्यक्तित्व के आकलन जैसी अप्रासंगिक चीजों के आधार पर तय किया जाता है। इसी तरह, नॉर्वेजियन बाल सुरक्षा कर्मचारी “अटैचमेंट डिसॉर्डर” (यानी माता-पिता के साथ जुड़ाव में विकृति) का हवाला देकर बच्चों को माता-पिता से छीन लेते हैं। मां और शिशु के बीच “आंखों का संपर्क कैसा है” ऐसी बेतुकी चीजों के आधार पर “अटैचमेंट डिसॉर्डर” का आकलन किया जाता है। क्या हम भारतीय भी इसी मॉडल को अपनी मंजिल मान चुके हैं?
*******
प्रस्तुत लेख में मैं इस बारे में बात करूंगी कि बाल अधिकारों के क्षेत्र में “बच्चे के श्रेष्ठ हितों” के सिद्धांत का बच्चों के वास्तविक हितों के विरुद्ध ही किस प्रकार इस्तेमाल किया जा रहा है।
किशोर न्याय नियमावली, 2016 (“जेजे नियमावली”) के नियम 19(8) के तहत फॉस्टर केयर कार्रवाई इस तरह शुरू होती है कि पहले बच्चे को बाल कल्याण समिति (“सीडब्ल्यूसी”) के सामने पेश किया जाता है और फिर सीडब्ल्यूसी फार्म 22 के आधार पर बच्चे के बारे में एक रिपोर्ट तैयार करने का आदेश देती है। तो कार्रवाइ फार्म 22 से शुरू होती है लेकिन इस फार्म में ये प्रश्न नहीं पूछा गया है कि बच्चे को माता-पिता से अलग करना सही है या नहीं बल्कि ये प्रश्न पूछा गया है कि क्या माता-पिता के पास रहना उसके “बेस्ट इटरेस्ट्स” यानी “श्रेष्ठ हितों” के अनुकूल होगा? यानी, सीडब्ल्यूसी की निगरानी में चलने वाली फॉस्टर केयर कार्रवाई बच्चे को उसे माता-पिता से अलग करने के औचित्य पर नहीं बल्कि इस बात पर केंद्रित होती है कि बच्चे को माता-पिता के साथ रखने का औचित्य क्या है। यदि परिवार यह कहता है कि वह बच्चे को वापस लेना चाहता है मगर केस वर्कर जेजे नियमावली के फार्म 35 में यह लिख दे कि “यह परिवार बच्चे को वापस पाना चाहता है मगर उसे रखने लायक नहीं है” तो उसकी इस अर्जी को बिना सुनवाई के खारिज किया जा सकता है।
जिन पश्चिमी देशों में पहले ही फॉस्टर केयर व्यवस्था मौजूद है वहां फॉस्टर चाइल्ड को अपने पैदाइशी परिवार के पास वापस भजने के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट ये है कि उसे “बेस्ट इन्ट्रेस्ट ऑफ़ दी चायिल्ड” यानी “बच्चे के श्रेष्ठ हितों” की कसौटी से बांध दिया गया है। ये जुमला “बच्चे के श्रेष्ठ हित” जो दुनिया भर में बाल सुरक्षा अधिवक्ताओं का मंत्र सा बन गया है इसका दरअसल मतलब क्या है?
अगर हम अपने देश में देखें तो किशोर न्याय अधिनियम, 2015 (“जेजे ऐक्ट”) में “बच्चे के सर्वश्रेष्ठ हित” की बहुत टेढ़ी-मेढ़ी परिभाषा दी गई है। इसमें बच्चे के “अधिकारों और जरूरतों”, “सामाजिक कुशलक्षेम”, “सामाजिक, भावनात्मक एवं बौद्धिक विकास” जैसी चीजों का हवाला दिया गया है। गौर करें कि बच्चे की खुशहाली में पारिवारिक संबंधों के महत्व का उल्लेख कहीं नहीं है!
“बेस्ट इन्ट्रेस्ट ऑफ़ दी चायिल्ड” का यह उसूल हमें इस सवाल से बहुत आगे पहुंचा देता है कि बच्चे का यौन उत्पीड़न या उपेक्षा हो रहा है कि नहीं। “श्रेष्ठ हितों” की कसौटी के नाम पर हम उत्पीड़न या उपेक्षा के साक्ष्य नहीं ढूंढते बल्कि परिवार की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्थिति का एक बेहद व्यापक मूल्यांकन करने लग जाते हैं। उदाहरण के लिए, जेजे नियमावली के फार्म 43 में केस वर्कर्स को इस बारे में रिपोर्ट करने के लिए कहा गया है कि बच्चा चित्रकारी और पेंटिंग करता है या किताबें पढ़ता है। इसमें “परिवार के भीतर अनुशासन के प्रति माता-पिता के रवैये और बच्चे की प्रतिक्रिया” के बारे में भी सवाल पूछा गया है। ऐसे सवाल बच्चे को माता-पिता से स्थायी रूप से अलग करने के लिए की जा रही जांच की दृष्टि से तो चिंताजनक हैं।
ब्रिटेन के एक प्रमुख बाल सुरक्षा एडवोकेसी संगठन, “नैशनल सोसायटी फॉर दि प्रिवेंशन आफ क्रूएल्टी अगेंस्ट चिल्ड्रेन” की राय में, माता-पिता की योग्यता का सीधा-सीधा मतलब यह है कि माता-पिता “गुड इनफ़” यानी “पर्याप्त रूप से अच्छे” हैं या नहीं। कानूनी तौर पर कहा जाए तो बच्चे को माता-पिता से अलग करने की कसौटी इससे और कमजोर नहीं हो सकती। इससे भी कमजोर कसौटी तो यही हो सकती है कि आप खुलेआम ऐलान कर दें कि माता-पिता और बच्चों को साथ रहने का कोई अधिकार या आवश्यकता नहीं है।
पश्चिमी देशों में “बाल-केंद्रित” होने के चलते यह व्यवस्था ऐसे दिखाई देती है मानो पूरी ईमानदारी से जरूरतमंद बच्चों के हक में हस्तक्षेप कर रही है जबकि असल में यह व्यवस्था मां-बाप की मजबूरियों को नजरअंदाज करने का बहाना दे देती है। जो परिवार अपनी गरीबी या असहाय छोड़ दिए जाने की वजह से संकट में फंस जाते हैं, उनको मदद देने की बजाय उनके बच्चों को जबर्दस्ती ले लिया जाता है।
हमारे भारतीय बाल सुरक्षा नियम भी इसी ढंग के हैं। यहां भी इसका कहीं हवाला नहीं है कि मां-बाप को मदद कैसे दी जाएगी। यहां तक कि विकलांग माता-पिता को अनुदान देने का भी प्रावधान नहीं किया गया है। उनके लिए एकमात्र “मदद” यह है कि उन्हें अपने बच्चों को गोद देने या फॉस्टर केयर में सौंप देने की “छूट” दे दी गई है।
फॉस्टर केयर नियमावली को विस्तार से पढ़ने पर पता चल जाता है कि यहां “परिवार” की प्रचलित समझदारी के स्थान पर उसकी परिभाषा को भी बहुत बारीकी से बदल दिया गया है। यहां बच्चे को परिवार का अधिकार देने की बजाय उसे “एक पारिवारिक वातावरण” का अधिकार दिया गया है। यह सोच एडॉप्शन की व्यवस्था से उपजी है। यतीम या छोड़ दिए गए बच्चों के मामले में यह प्रावधान महत्वपूर्ण हो सकता है मगर जब आप ऐसे बच्चों की बात कर रहे हैं जिनके पैदाइशी परिवार मौजूद हैं और वे बच्चे को अपने पास रखना चाहते हैं तब पैदाइशी परिवारों और “किसी भी परिवार” के बीच तुलना करने का कोई औचित्य नहीं है।
पारिवारिक संबंधों के प्रति हिकारत का आलम ये है कि नियम 82 में यहां तक कह दिया गया है कि अगर कोई बच्चा माता-पिता के पास वापस लौटना नहीं चाहता है तो उसे परिवार के पास वापस जाने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा या “समझाया” नहीं जाएगा। मॉडल गाईडलाइन्स फॉर फॉस्टर केयर, 2016 में “एक्सप्लेनेटरी नोट्स ऑन काउंसलिंग बायोलॉजिकल फेमिलीज़ आफ़ फॉस्टर चिल्ट्रेन” शीर्षक के तहत हिदायत दी गई है कि “पैदाइशी परिवारों को ये नहीं बताया जाना चाहिए कि फॉस्टर फैमिली या फॉस्टर चाइल्ड कहां रह रहे हैं… ताकि फॉस्टर फैमिली पर कोई नकारात्मक प्रभाव (जैसे फॉस्टर फैमिली से पैसे ऐंठना) न पड़े”। पैदाइशी परिवार के प्रति यह नकारात्मक रवैया फास्टर व्यवस्था के इरादों को अच्छी तरह जाहिर कर देता है।
*******
मैंने पहले भी कई जगह इस बात का जिक्र किया है कि किशोर न्याय अधिनियम, 2015 (“जेजे ऐक्ट”) के तहत भारत में बाल सुरक्षा का पश्चिमी मॉडल अपना कर हम एक बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं क्योंकि इसमें सरकारी एंजेंसियों को बिना सही तफ्तीश या मुकदमा चलाए बच्चों को अनाप-शनाप वजहों के आधार पर उनके पैदाइशी परिवारों से अलग करने की बेहिसाब ताकत दे दी गई हैं।
आइए अब इस बात पर गौर करें कि पश्चिमी देशों में इस व्यवस्था के क्या नतीजे रहे हैं। आप यही सोचते होंगे कि बच्चों को उनके परिवार से अलग करने वाली बाल संरक्षण व्यवस्था मुख्य रूप से परिवार के भीतर यौन उत्पीड़न या हिंसा जैसे मामलों पर केंद्रित होगी। मगर बहुत सारे पश्चिमी देशों के सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि ऐसा बिलकुल नहीं है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में बच्चों को माता-पिता से अलग करने के लिए दिए जाने वाले कारणों में “यौन उत्पीड़न” की श्रेणी में 4% और “शारीरिक उत्पीड़न” की श्रेणी में 12% केस है (एएफसीएआरएस रिपोर्ट, अक्तूबर 2017)। ये ऐसी व्यवस्था दिखाई नहीं देती जो मुख्य रूप से परिवार के भीतर बच्चों के साथ होने वाली यौन अथवा शारीरिक हिंसा की समस्या से निपट रही है।
अमेरिकन फॉस्टर केयर व्यवस्था के आंकड़ों से पता चलता है कि इसके तहत आने वाले ज्यादातर केस “मां-बाप की नशाखोरी” या बच्चों की “उपेक्षा” से संबंधित होते हैं। बेशक, बच्चों की नजर से ये गंभीर समस्याएं हैं मगर बच्चों को ऐसे माता-पिता से स्थायी रूप से अलग कर देना तो बहुत ही क्रूर कदम होगा। खासतौर से तब जब आप देखते हैं कि इस तरह के मामलों में लगभग हमेशा निशाना बनने वाले बेहद गरीब ही होते हैं। यह व्यवस्था संपन्न वर्ग के नशाखोर मां-बाप को शायद ही कभी छू पाती है। बच्चों की उपेक्षा के आधार पर उनके खिलाफ कभी जांच नहीं होती चाहे उनका पारिवारिक माहौल बच्चों के लिए कितना भी अनैतिक क्यों न हो जबकि गरीब परिवारों के माहौल को “उपेक्षा” या “मां-बाप की विफलता” की श्रेणी में रख दिया जाता है।
इंग्लैंड में सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि 2012 से हर साल जिन बच्चों को उनके परिवारों से अलग किया गया था उनमें से 60 से 62 प्रतिशत बच्चे “उत्पीड़न अथवा उपेक्षा” की श्रेणी में रहे हैं। मगर इन आंकड़ों में इस बात का ब्यौरा नहीं दिया जा रहा है कि “उत्पीड़न” की श्रेणी में यौन, शारीरिक व भावनात्मक उत्पीड़न की घटनाओं का क्या प्रतिशत रहा है (डिपार्टमेंट फॉर एजुकेशन एसएफआर 50/2017, “चिल्ड्रेन लुक्ड आफ्टर इन इंग्लैंड (इन्क्लूडिंग एडॉप्शन), इयर एंडिंग मार्च 2017” – टेबल ए1)। परिवार के भीतर यौन उत्पीड़न या हिंसा किसी भी तरह के भावनात्मक उत्पीड़न के मुकाबले बहुत गंभीर किस्म की समस्याएं होती हैं। लिहाजा इन आंकड़ों से ये भी पता नहीं चलता कि बच्चों को उनके माता-पिता से अलग करने के लिए किसी गंभीर उत्पीड़न की बात की जा रही है या ऐसे समस्याओं की बात की जा रही है जिन्हे उत्पीड़न की श्रेणी में डालना वाजिब नहीं है।
बच्चे को फॉस्टर प्लेसमेंट में रखने का हुक्म देने से ठीक पहले उन्हें ‘‘एक संरक्षण योजना के तहत’’ रखा जाता है। इस ‘‘संरक्षण याजना के तहत’’ रखे गए बच्चों (“चिल्ड्रेन सबजेक्ट टू ए केयर प्लान”) से संबंधित इंग्लैंड के आंकड़ों से पता चलता है कि यह फॉस्टर केयर व्यवस्था बच्चों के यौन अथवा शारीरिक उत्पीड़न की बजाय “भावनात्मक उत्पीड़न” (“इमोशनल अब्यूज़”) पर बहुत ज्यादा चिंतित है। 2010 से 2017 के बीच हर साल “चिल्ड्रेन सबजेक्ट टू ए केयर प्लान” के मामलों में शारीरिक एवं यौन उत्पीड़न की श्रेणी में क्रमशः केवल 6-10% एवं 4% मामले थे जबकि “भावनात्मक उत्पीड़न” तथा “उपेक्षा” की श्रेणी के तहत क्रमशः 30% और 40% मामले थे (डिपार्टमेंट फॉर एजुकेशन एसएफआर 61/2017, “कैरेक्टेरिस्टिक्स ऑफ चिल्ड्रेन इन नीड”, पृष्ठ 11 तथा टैबल डी 4, 2012-13 से 2016-2017 तक प्रत्येक वर्ष के लिए)। लिहाजा, ऐसा लगता है कि इस व्यवस्था का मुख्य ध्यान शारीरिक अथवा यौन उत्पीड़न पर नहीं, बल्कि ऐसे माम्लों पर है जहाँ एसी समस्या परिवार में मौजूद नहीं है। हो सकता है कि व्यवस्था “चिल्ड्रेन सबजेक्ट टू ए केयर प्लान” में से ज़्यादातर उन बच्चों को फॉस्टर केयर में रखने का फैसला लेती है जो यौन अथवा शारीरिक उत्पीड़न के शिकार हैं मगर फॉस्टर केयर के आंकड़ों से यह सूचित नहीं है। मिसाल के तौर पर, वर्ष 2012 से 2017 तक इंग्लैंड में हर साल “पारिवारिक विखंडन” और “गहरे तनाव से ग्रस्त परिवार” के आधार पर बच्चों को परिवार से अलग करने की घटनाओं की संख्या लगभग 25% के आसपास रही है (डिपार्टमेंट फॉर एजुकेशन एसएफआर 50/2017)। इस प्रकार एक बार फिर हमें बहुत बड़ी संख्या में ऐसे मामले दिखाई पड़ रहे हैं जहां बच्चों को परिवार से अलग करने के लिए उत्पीड़न या उपेक्षा को नहीं बल्कि किसी और चीज को आधार बनाया जा रहा है।
इंग्लैंड की अदालतों द्वारा दिए गए फॉस्टर केयर संबंधी आदेशों को देखकर पता चलता है कि बच्चों को अपने माता-पिता से अलग करने के लिए बहुत मामूली कसौटियों का सहारा लिया जाने लगा है जैसे फ़ैमिली कोर्ट द्वारा “भविष्य में भावनात्मक क्षति की आशंका” (“रिस्क ऑफ फ्यूचर इमोशनल हार्म”) के फ़ैसले जहाँ न्यायधीश यह भी कहते हैं कि माता-पिता बच्चों को प्रेम करते हैं और बच्चों को उनकी वजह से काई नुकसान नहीं पहुंचा है।
नॉर्वे के सरकारी आंकड़ों में बच्चों को सरकारी संरक्षण में रखने के कारणों का अलग-अलग ब्यौरा नहीं दिया जाता है मगर “बीयूएफडीआईआर” नामक सरकारी संस्था, जोकि सरकारी संरक्षण में पल रहे बच्चों से संबंधित आंकड़े जारी करती है, उसका कहना है कि बाल कल्याण व्यवस्था में “बच्चों और युवाओं को रखने के पीछे माता-पिता की क्षमताओं की कमी” (“लैक ऑफ़ पैरन्टल अबिलिटीज़”) और “परिवार में गंभीर टकराव” सबसे मुख्य कारण रहे हैं। बीयूएफडीआईआर द्वारा ‘‘उत्पीड़न’’ या ‘‘नशाखोरी’’ की बजाय ‘‘माता-पिता की क्षमता’’ का उल्लेख इस बात का संकेत है कि इन मामलों में उत्पीड़न या नशाखोरी के मामले शामिल नहीं हैं।
लिहाजा, बाल संरक्षण का पश्चिमी मॉडल बच्चों के वास्तविक उत्पीड़न को रोकने पर नहीं बल्कि इस बात पर ज्यादा केंद्रित है कि परिवार का आंतरिक माहौल कैसा है, मां-बाप की जीवनशैली कैसी है और मां-बाप अपने बच्चे को कैसा भौतिक जीवन स्तर दे सकते हैं। अगर ऐसा है तो सवाल ये उठना चाहिए कि क्या ये इतनी बड़ी चिंताएं हैं कि बच्चे को जबरन उसके पूरे परिवार से अलग कर देने जैसी भयानक कदम उठाना सही होगा। एक परिवार जिन समस्याओं से जूझ रहा है, उनसे निबटने के लिए यह कदम न तो अनुपात के हिसाब से और न ही इंसानियत के हिसाब से जायज ठहराया जा सकता है। हमें गंभीरता से सोचना चाहिए कि हमें ऐसी दंडात्मक व्यवस्था की जरूरत ही क्या है। इसकी बजाय हमें ऐसे वैकल्पिक मॉडल पर ध्यान देना चाहिए जिसमें संकटग्रस्त बच्चों को उनके परिवार और समुदाय से अलग किए बिना उनको राहत और मदद दी जा सके।
*******
मैं पहले भी इस बारे में बात करती रही हूं कि हमने किशोर न्याय अधिनियम, 2015 (जेजे ऐक्ट) के तहत भारत में फॉस्टर केयर के पश्चिमी मॉडल को अपनाकर एक गलती की है क्योंकि इससे सरकारी एजेंसियों को बिना सही तफ्तीश या मुकदमा चलाए बच्चों को अनाप-शनाप वजहों के आधार पर उनके पैदाइशी परिवारों से अलग करने की बेहिसाब ताकत दे दी गई हैं। हमें इस बात पर भी गौर कर लेना चाहिए कि यह मॉडल उन उन्नत पश्चिमी देशों में भी विफल हो चुका है जहां यह चार दशकों से लागू है। इसके सबसे मुखर हिमायती भी ये मान चुके हैं कि फॉस्टर केयर में पलने वाले बच्चे आम आबादी के बच्चों के मुकाबले बहुत खराब प्रदर्शन करते हैं।
अमेरिका में किए गए सर्वेक्षणों से पता चलता है कि फॉस्टर केयर में पलने वाले बच्चों में से केवल 2.9% युवा ही स्नातक की डिग्री हासिल कर पाते हैं। उनमें से आधे बच्चे पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते (“नैशनल वर्किंग ग्रुप ऑन फॉस्टर केयर ऐण्ड एजुकेशन इन दि यूएसए, 2014”)। इंग्लैंड और अमेरिका में फॉस्टर केयर और वेश्यावृत्ति की दुनिया में ढकेल दिए जाने के बीच संबंध सर्वविदित है। इसी के चलते बहुत सारे लोग फॉस्टर केयर को “मानव व्यापार की ओर जाने वाली पाइपलाइन” कहते हैं। बहुत सारे विशेषज्ञ फॉस्टर केयर को “कारावास की ओर जाने वाली पाइपलाइन” भी बताते हैं क्योंकि फॉस्टर केयर में पले युवाओं में आपराधिक प्रवृत्तियां सामान्य युवाओं से कहीं ज्यादा पाई जाती हैं।
इंग्लैंड में उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, बाकी बच्चों के मुकाबले सरकारी संरक्षण में पलने वाले बच्चों में अपराध करने की प्रवृत्ति पांच गुना ज्यादा होती है (डिपार्टमेंट फॉर एजुकेशन, “चिल्ड्रेन लुक्ड आफ्टर इन इंग्लैंड”, एडीशनल टेबल्स, एसएफआर 50/2017)। आंकड़ों में ये भी दिखाया गया है कि 16 से 17 साल वाले किशोर-किशोरियों में 11% और 13 से 15 साल वालों में से 5% बच्चे नशीली दवाओं का सेवन करने लगते हैं। इंग्लैंड में सरकारी संरक्षण में पले बच्चों के शैक्षिक परिणाम अपने परिवारों के साथ रहने वाले बच्चों के मुकाबले काफी खराब पाए गए हैं (डिपार्टमेंट फॉर एजुकेशन, “चिल्ड्रेन लुक्ड आफ्टर इन इंग्लैंड”, एडीशनल टेबल्स, एसएफआर 20/2018)।
लिहाजा सवाल ये उठता है कि हम फॉस्टर केयर की बात ही क्यों कर रहे हैं? बाल सुरक्षा के शब्दजाल में फॉस्टर केयर को “डी-इंस्टीट्यूशनलाइजेशन” यानी गैर-संस्थागत संरक्षण कहा जाता है। दावा किया जा रहा है कि फॉस्टर केयर व्यवस्था अनाथालय में जीने के मुकाबले निश्चय ही बेहतर है क्योंकि इससे बच्चों को एक घरेलू वातावरण और अपनेपन का एहसास मिलता है। मगर पश्चिमी देशों की फॉस्टर केयर व्यवस्था में पले बहुत सारे लोगों ने बताया है कि उनके अपने परिवार में जो भी कमी-बेशी रही हो, फॉस्टर केयर में वो कहीं ज्यादा उत्पीड़न, हिंसा, यहां तक कि बलात्कार का भी सामना करते हैं। शायद यही वजह है कि फॉस्टर होम्स से “भाग जाने” वाले बच्चों की तादाद इतनी ज्यादा रहती है।
फॉस्टर केयर में पले बहुत सारे बच्चों का कहना है कि भले ही फॉस्टर केयर के दौरान उनका उत्पीड़न न हुआ हो, मगर वहां उन्हें प्रेम का एहसास भी कभी नहीं हुआ। उन्हें वह लगाव नहीं मिला जिसकी उन्हें सबसे ज्यादा चाह थी। लिहाजा ये बहस योग्य है कि फॉस्टर केयर व्यवस्था से बच्चों को परिवार जैसा भावनात्मक संरक्षण मिल पाता है जिसकी इस व्यवस्था के पक्ष में हमेशा दुहाई दी जाती है।
फॉस्टर केयर की आड़ में पारिवारिक संबंधों के बिखराव का एक नतीजा ये भी है कि संरक्षण व्यवस्था से वयस्क होकर निकलने वाले इन बच्चों के पास दुनिया में कोई ठौर-ठिकाना नहीं होता। बहुत कम उम्र में मां-बाप से छीन लिए गए ऐसे बहुत सारे बच्चों को अपने माता-पिता का कुछ अता-पता नहीं होता। उनमें से बहुतों को बचपन से ही ये घुट्टी पिलाई जाती है कि उनके मां-बाप बेकार थे। इसकी वजह से ऐसे प्रौढ़ माता-पिता की संख्या भी बढ़ती जा रही है जिनकी देखभाल करने के लिए उनके बच्चे उनके पास नहीं हैं।
देखा गया है कि संरक्षण व्यवस्था से निकलने वाली लड़कियां अकसर किशोरावस्था में ही गर्भवती हो जाती हैं। इन नवयुवतियों के बच्चे भी बाल सुरक्षा व्यवस्था का निशाना बन जाते हैं क्योंकि फॉस्टर केयर में पली होने के कारण “योग्य अभिभावक” के रूप में उनकी क्षमता भी संदेहास्पद मान ली जाती है। क्या हम अपने देश में भी इसी त्रासद चक्र को शुरू करना चाहते हैं।
तो पश्चिमी अनुभवों से ये साबित हो गया है कि फॉस्टर केयर व्यवस्था कारगर नहीं है। यह न तो उत्पीड़न का शिकार हो रहे बच्चों की शिनाख्त में और न ही फॉस्टर केयर में रखे जा चुके बच्चों के लिए बेहतर हालात पैदा करने में कामयाब हो पायी है। हमें पश्चिम में नाकाम हो चुकी व्यवस्था को अपने यहां अपनाने की जरूरत नहीं है। यतीम, बेसहारा और गरीब बच्चों के लिए सार्वजनिक सहायता के परंपरागत तरीके अपनाना कहीं ज्यादा बेहतर है बजाय इसके कि सरकार समस्या का हल ढूंढने के नाम पर बच्चे को उसके परिवार से ही अलग कर दे। सरकार को अजनबियों के साथ फॉस्टर केयर में बच्चों को पालने की व्यवस्था के नाम पर परिवारों को तोड़ने और बनाने की ईश्वरीय भूमिका अपनाने की कोई जरूरत नहीं है। जहां सचमुच उत्पीड़न हो रहा है वहां मां-बाप को जेल भेजिए बच्चे को नहीं। उनके बच्चों को संरक्षरण दीजिए मगर इस तरह की उनके बाकी परिवार और समुदाय के साथ उनके संबंधों पर आंच न आए।
*******